छठ पूजा का व्रत
छठ पूजा संतान की सुख-समृद्धि और मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए किया जाता है। छठ पूजा को सबसे कठिन व्रतों में से एक माना जाता है। छठ पर्व कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से आरंभ होता है और कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और उसके बाद अगले दिन सुबह उगते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद छठ पूजा संपन्न मानी जाती हैं।
छठ पूजा का व्रत परिवार की खुशहाली और संतान की सुरक्षा के साथ अच्छी सेहत के लिए किया जाता है और इसमें व्रती महिलाओं को कई घंटों तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना होता है। इस दौरान छठ पूजा के व्रतियों और उनके परिजनों को बहुत से नियमों का पालन करना चाहिए। ताकि उनका व्रत बिना किसी बाधा के संपन्न हो सके और छठी मइया का आशीर्वाद प्राप्त कर सकें।
छठ पूजा क्यों मनाया जाता है
कार्तिक मास की अमावस्या को दीवाली मनाने के तुरंत बाद मनाए जाने वाले इस चार दिवसिए व्रत की सबसे कठिन और महत्वपूर्ण रात्रि कार्तिक शुक्ल षष्ठी की होती है। इसी कारण इस व्रत का नाम करण छठ व्रत हो गया। छठ पर्व षष्ठी तिथि का अपभ्रंश है। सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। पारिवारिक सुख-स्मृद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है।
छठ पर्व में सूर्य और छठी मैया की पूजा
छठ पूजा में सूर्य देव की पूजा की जाती है और उन्हें अर्घ्य दिया जाता है। सूर्य प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देने वाले देवता है, जो पृथ्वी पर सभी प्राणियों के जीवन का आधार हैं। सूर्य देव के साथ-साथ छठ पर छठी मैया की पूजा का भी विधान है।
सूर्य और छठी मैया का संबंध भाई बहन का है। मूलप्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने के कारण इनका नाम षष्ठी पड़ा। वह कार्तिकेय की पत्नी भी हैं। षष्ठी देवी देवताओं की देवसेना भी कही जाती हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने की थी।
कौन हैं छठी मैया
पौराणिक मान्यता के अनुसार छठी मैया या षष्ठी माता संतानों की रक्षा करती हैं और उन्हें दीर्घायु प्रदान करती हैं। शास्त्रों में षष्ठी देवी को ब्रह्मा जी की मानस पुत्री भी कहा गया है। पुराणों में इन्हें माँ कात्यायनी भी कहा गया है, जिनकी पूजा नवरात्रि में षष्ठी तिथि पर होती है। षष्ठी देवी को ही बिहार-झारखंड में स्थानीय भाषा में छठ मैया कहा गया है।
छठ पूजा के नियम
छठ पूजा में सिर्फ व्रती ही नहीं बल्कि उनके परिवार के सभी लोगों को सात्विक भोजन ही करना चाहिए। छठ पूजा के दौरान परिवार के सभी लोगों को लहसुन और प्याज से परहेज करते हुए साधारण भोजन करना चाहिए। ऐसा करने से आपके मन में श्रद्धा भाव बना रहता है और सुविचार आते हैं।
व्रती महिलाओं के लिए जरूरी नियम
छठ पूजा में जो महिलाएं व्रत करती हैं उन्हें 36 घंटे तक पानी भी नहीं पीना होता है। इस नियम का पालन करन शास्त्रों में बहुत ही जरूरी माना गया है। व्रत के दौरान पानी पीने से आपका व्रत खंडित माना जाता है और आपको पूजा का लाभ नहीं मिलता है। इसलिए इस बात का जरूर ध्यान रखें कि आपको पानी नहीं पीना है। छठ का व्रत सिर्फ उन्हीं लोगों को रखना चाहिए जो इस नियम का पालन कर सकें।
पूजा में साफ सफाई का रखें ध्यान
छठ पूजा में साफ-सफाई और पवित्रता का बहुत ध्यान रखा जाता है। महिलाएं साफ धुले हुए वस्त्र पहनें और पूजा के लिए प्रसाद बनाने से पहले उस स्थान को ठीक से साफ-सुथरा कर लेना चाहिए। साथ ही जिस स्थान पर आपको पूजा करनी है उस स्थान को गंगाजल से पवित्र कर लेना चाहिए।
छठ पर्व की मान्यता
शुरू करने के बाद छठ पर्व को सालोंसाल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला को इसके लिए तैयार न कर लिया जाए। घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है।
ऐसी मान्यता है कि छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। पुत्र की चाहत रखने वाली और पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएं यह व्रत रखती हैं। किंतु पुरुष भी यह व्रत पूरी निष्ठा से रखते हैं।
छठ पर्व परंपरा
यह पर्व चार दिनों तक चलता है। भैया दूज के तीसरे दिन से यह आरंभ होता है। पहले दिन सैंधा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दू की सब्जी प्रसाद के रूप में ली जाती है। अगले दिन से उपवास आरंभ होता है।
इस दिन रात में खीर बनती है। व्रतधारी रात में यह प्रसाद लेते हैं। तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं। अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हैं।
इस पूजा में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है; लहसून, प्याज वर्ज्य है। जिन घरों में यह पूजा होती है, वहां भक्तिगीत गाए जाते हैं। पूजा की तैयारी के लिए लोग मिलकर पूरे रास्ते की सफाई करते हैं।
छठ व्रत का महत्व
छठ उत्सव के केंद्र में छठ व्रत है जो एक कठिन तपस्या की तरह है। यह प्रायः महिलाओं द्वारा किया जाता है किंतु कुछ पुरुष भी यह व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाली महिला को परवैतिन भी कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है।
भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाए गए कमरे में व्रती फर्श पर एक कंबल या चादर के सहारे ही रात बिताई जाती है। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नए कपड़े पहनते हैं। पर व्रती ऐसे कपड़े पहनते हैं, जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं की होती है। महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं।
छठ पूजा की सामग्री :
छठ पूजा का पर्व चार दिनों तक चलता रहता है। पौराणिक मान्यता है कि छठ पूजा को पूरे विधि-विधान के साथ संपन्न करने के लिए पहले से तैयारियां कर लेनी चाहिए, ताकि व्रत के दौरान किसी भी चीज की कमी न पड़े।
छठ पूजा करने के लिए कुछ सामानों को बहुत जरूरी माना जाता है। इनके बिना आपकी छठ पूजा पूर्ण नहीं हो सकती। आइए, जानते हैं छठ पूजा की सामग्री।
छठ पूजा के सामान की लिस्ट (Chhath Puja Saman List)
बांस की दो बड़ी-बड़ी टोकरियां
पानी वाला नारियल
दूध और जल के लिए एक गिलास
एक लोटा और थाली, चम्मच
5 गन्ने पत्ते लगे हुए
शकरकंदी और सुथनी
पान और सुपारी
हल्दी
शरीफा
केला
नाशपाती
शकरकंदी
मूली और अदरक का हरा पौधा
सिंघाड़ा
मिठाई
बड़ा वाला मीठा डाभ नींबू
गुड़
गेहूं
चावल का आटा
ठेकुआ
चावल
सिंदूर
कलावा
दीपक
शहद
धूप
कुमकुम
नई साड़ी
फूल मालाएं
छठ पूजा में इन बातों का रखें खास ध्यान
छठ पूजा में रोजाना सुबह जल्दी उठकर स्नान कर लें और फिर पूजा अनुष्ठान आरंभ करें।
छठ पूजा में भोग और प्रसाद बनाते समय साधारण नमक का प्रयोग न करें, सेंधा नमक ही डालें।
भूलकर भी इस दौरान घर में शराब और मांसाहार नहीं आना चाहिए।
इस दौरान नहाने के बाद घर की महिलाएं रोजाना नारंगी रंग का सिंदूर ही लगाएं।
पूजा करते समय भगवान सूर्य और छठी माता को दूध जरूर अर्पित करें।
पूजा में फटी और पुरानी टोकरी का प्रयोग न करें। हमेशा साफ और नई टोकरी लेकर पूजा करें।
छठ पूजा के पहले दिन नहाय-खाय से होती है शुरुआत
छठ पूजा के पहले दिन, जिसे नहाय-खाय के नाम से भी जाना जाता है। डूबते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा है, जिसे संध्या अर्घ्य कहते हैं। इस दिन श्रद्धालु डूबते सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं। इस अर्घ्य को देने के लिए बांस या पीतल की टोकरी या बांस से बने सूप का इस्तेमाल किया जा सकता है। आप तांबे, पीतल या सोने के कलश से सूर्यदेव को शाम के समय अर्घ्य दे सकते हैं।
अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए छठी माता को चढ़ाएं ये चीजें
पौराणिक मान्यता है कि अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए छठी मैया को सिंदूर, चावल, चना, गुड़, मिठाई, सात तरह के फल, श्रृंगार का सामान और घी का ठेकुआ चढ़ाना चाहिए। छठी मैया को ये सब चीजें चढ़ाने से पति की उम्र लंबी होती है और सुहागिन महिलाओं को अखंड सौभाग्य का वरदान मिलता है।
छठ पूजा विधि
छठ पूजा से पहले निम्न सामग्री जुटा लें और फिर सूर्य देव को विधि विधान से अर्घ्य दें।
👉 बांस की 3 बड़ी टोकरी, बांस या पीतल के बने 3 सूप, थाली, दूध और ग्लास।
👉 चावल, लाल सिंदूर, दीपक, नारियल, हल्दी, गन्ना, सुथनी, सब्जी और शकरकंदी।
👉 नाशपती, बड़ा नींबू, शहद, पान, साबुत सुपारी, कैराव, कपूर, चंदन और मिठाई।
👉 प्रसाद के रूप में ठेकुआ, मालपुआ, खीर-पुड़ी, सूजी का हलवा, चावल के बने लड्डू लें।
पहला दिन नहाय खाय
पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाइ कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं।
घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। यह दाल चने की होती है।
दूसरे दिन खरना
दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक अन्न और जल दोनों का त्याग करके उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है।
प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है।
खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। इसे व्रत करने वाले से लेकर परिवार के सभी लोगों में बांटा जाता है।
तीसरे दिन संध्या अर्घ्य
तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है। इस दिन भी पूरे दिन का उपवास किया जाता है।
शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। संध्या समय में सूर्य देवता को पहला अर्घ्य दिया जाता है।
सभी छठव्रती एक नीयत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है।
चौथा दिन उषा अर्घ्य
यह छठ पूजा का अंतिम दिना होता है। इस दिन सूर्योदय के समय सूर्य देवता को छठ पूजा का दूसरा अर्घ्य दिया जाता है। चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। व्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। जिसके बाद 36 घंटे के लंबे उपवास का समापन हो जाता है। अंत में व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं।
सूर्य को अर्घ्य देने की विधि
बांस की टोकरी में उपरोक्त सामग्री रखें। सूर्य को अर्घ्य देते समय सारा प्रसाद सूप में रखें और सूप में ही दीपक जलाएँ। फिर नदी में उतरकर सूर्य देव को अर्घ्य दें।
छठ पूजा अर्घ्य मन्त्र समय
ॐ सूर्य देवं नमस्ते स्तु गृहाणं करूणा करं।
अर्घ्यं च फ़लं संयुक्त गन्ध माल्याक्षतै युतम् ।।
छठ पूजा की पौराणिक कथाएँ
छठ पूजा की परंपरा और उसके महत्व का प्रतिपादन करने वाली अनेक पौराणिक और लोक कथाएँ प्रचलित हैं।
रामायण की मान्यता
एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशिर्वाद प्राप्त किया था।
महाभारत की मान्यता
एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बना था। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है।
कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रोपदी द्वारा भी सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है। वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं।
पुराणों की मान्यता
एक कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परंतु वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे।
उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। राजन तुम मेरा पूजन करो तथा और लोगों को भी प्रेरित करो। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।