नयी उम्मीदें – मेरी कलम से Hindi Kavita
नयी उम्मीदें – मेरी कलम से
खुद ही से मैं नज़रें चुराने लगी हूं,
उन यादों से दामन छुड़ाने लगी हूँ ।
खुद ही से खुद ही का पता पूछती हूँ,
न जाने कहाँ मैं विलीन हो चुकी हूँ ।
अरमानों को अपने दबाने लगी हूँ,
पहचान अपनी भुलाने लगी हूँ ।
भटकने लगी राह मंज़िल की अपनी,
कहूँ क्या किधर थी, किधर को चली हूँ ।
मिल जाये न साथी कोई बीते दिनों का,
ऐसे लोगों से अब मैं कतराने लगी हूँ ।
मजबूरियों की बोझ तले दबने लगी हूँ,
हालात के बन्धनों में मैं जकड़ने लगी हूँ।
पर अपनी जिम्मेदारियों को निभाना तो होगा,
धूमिल पहचान अपनी दिखाना भी होगा।
उलझनें अपनी खुद मैं सुलझाने लगी हूँ,
सोयी उम्मीदें को फिर से जगाने लगी हूँ।
जमती धूलों को अब मैं हटाने चली हूँ,
राह मंज़िल की अपनी बनाने चली हूँ ।
किसी मोड़ पर मिल ही जायेगी ‘तृप्ति‘ ,
अपने कदमों को अब मैं बढ़ाने लगी हूँ ।
—तृप्ति श्रीवास्तव
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