काश कभी तुम समझ सको….मेरी कलम से
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अपने सपनों का दमन किया,
तेरे सपनों को नमन किया।
अपने सारे कर्तव्यों का मैंने,
हँसते-हँसते निर्वहन किया।।
अब मैं भी थोड़ी क्षीण हो गई,
शायद तुम्हें ये ध्यान ही नहीं।
मेरी भी तो उम्र ढल गई,
इस बात से तुम अनजान नहीं।।
कभी तो मैं भी थकती हूँगी,
काश कभी यह महसूस करो।
दुखते होंगे पाँव भी मेरे,
काश ये तुम एहसास करो।।
भूख मुझे भी लगती होगी,
कभी तो तुमको ख़्याल रहे।
मेरी पसंद और नापसंद से,
तुम हमेशा ही अनजान रहे।।
नही चाहती मैं ये तुमसे,
कि तुम मुझ पर अभिमान करो।
पर नही चाहती ये भी तुमसे,
कि तुम मेरा अपमान करो।।
कुछ मेरे भी तो अरमां होंगे,
काश कभी ये जान सको।
मेरे आत्मसम्मान की गरिमा को,
तुम भी शायद पहचान सको।।
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क्यों खुद से मैं बातें करती,
शायद ये तुम्हें मालूम नहीं।
कभी तो पल भर साथ में बैठो,
मैं इतनी भी नादान नहीं।।
खुद को तुझमें ही विलीन कर दिया,
फिर भी तुझको ‘तृप्ति’ ना मिली।
कुछ अनसुलझे व अनजाने प्रश्नों से,
अबतक भी मुझको मुक्ति ना मिली।।
— तृप्ति श्रीवास्तव
औरत के दिल का मर्म – मेरी कलम से
मेरे जीवन की पहचान | Hindi poem by Tripti Srivastava