शनिदेव की पौराणिक कथा और रहस्य
शनि देव सदैव से जिज्ञासा का केंद्र रहे हैं। पौराणिक ग्रंथो में शनिदेव को न्यायाधीश के रूप में दर्शाया गया है। शनिदेव अपना शुभ प्रभाव विशेषतः कानून, राजनीति व अध्यात्म के विषयों में देते हैं।
कौन हैं शनिदेव? Who is Shani dev
पौराणिक कथाओं के अनुसार शनि देव कश्यप वंश की परंपरा में भगवान सूर्य की पत्नी छाया के पुत्र हैं। ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को शनि देव का जन्म उत्सव मनाया जाता है। शनि देव का जन्म स्थान सौराष्ट्र में शिंगणापुर माना गया है।
शनि देव को सूर्यपुत्र के साथ-साथ पितृ शत्रु भी कहा जाता है। शनि देव के भाई-बहन मृत्युदेव यमराज, पवित्र नदी यमुना व क्रूर स्वभाव की भद्रा हैं। शनि देव का विवाह चित्ररथ की बड़ी पुत्री से हुआ था।
हनुमान, भैरव, बुध व राहू को वे अपना मित्र मानते हैं। शनिदेव का वाहन गिद्ध है और उनका रथ लोहे का बना हुआ है।
शनिदेव के दस नाम : Shani dev ke 10 Names
यम,
बभ्रु,
पिप्पलाश्रय,
कोणस्थ,
सौरि,
शनैश्चर,
कृष्ण,
रोद्रान्तक,
मंद,
पिंगल।
शनिदेव का रंग काला क्यों है? Why Shani Dev is Black
जब शनि देव अपनी माता छाया के गर्भ में थे, तब शिव भक्तिनी माता ने तेजस्वी पुत्र की कामना हेतु भगवान शिव की घोर तपस्या की जिस कारण धूप व गर्मी की तपन में शनि का रंग गर्भ में ही काला हो गया लेकिन मां के इसी तप ने शनि देव को अपार शक्ति भी दी।
ज्योतिष ग्रंथों में कहा गया है कि शनि को काला रंग व लोहे की धातु अत्याधिक प्रिय है और वह जमीन, भूगर्भ, वीरान स्थल आदि का कारक ग्रह है।
इसलिये किसी भी शनि वार को किसी सुनसान जगह पर काजल की लोहे की छोटी सी डिबिया को जमीन में गाड़ दें और बिना पीछे देखे घर लौट आएं तो यह शनिदेव की अशुभता से बचने का सटीक व सरल उपाय है।
शनिदेव की चाल धीमी क्यों कही जाती है?
इस विषय पर शास्त्रों में दो कथाएं प्रचलित हैं-
पहली कथा:-
एक बार सूर्य देव का तेज सहन न कर पाने की वजह से उनकी पत्नी संज्ञा देवी ने अपने शरीर से अपने जैसी ही एक प्रतिमूर्ति तैयार की और उसका नाम स्वर्णा रखा। उसे आज्ञा दी कि तुम मेरी अनुपस्थिति में मेरी सारी संतानों की देखरेख करते हुये सूर्यदेव की सेवा करो और पत्नी सुख भोगो। ये आदेश देकर वह अपने पिता के घर चली गयी।
स्वर्णा ने भी अपने आप को इस तरह ढाला कि सूर्यदेव भी यह रहस्य न जान सके। इस बीच सूर्यदेव से स्वर्णा को पांच पुत्र व दो पुत्रियां हुई। स्वर्णा अपने बच्चों पर अधिक और संज्ञा की संतानों पर कम ध्यान देने लगी।
एक दिन संज्ञा के पुत्र शनि को तेज भूख लगी, तो उसने स्वर्णा से भोजन मांगा। तब स्वर्णा ने कहा कि अभी ठहरो, पहले मैं भगवान का भोग लगा लूं और तुम्हारे छोटे भाई बहनों को खाना खिला दूं, फिर तुम्हें भोजन दूंगी।
यह सुन शनि को क्रोध आ गया और उसने माता को मारने के लिये अपना पैर उठाया तो स्वर्णा ने शनि को श्राप दे दिया कि तेरा पांव अभी टूट जाये।
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माता का श्राप सुनकर शनि देव डरकर अपने पिता के पास गये और सारा किस्सा कह दिया। सूर्यदेव समझ गये कि कोई भी माता अपने बच्चे को इस तरह का श्राप नहीं दे सकती। तब सूर्यदेव ने क्रोध में आकर पूछा कि बताओ तुम कौन हो?
सूर्य का तेज देखकर स्वर्णा घबरा गयी और सारी सच्चाई बता दी। तब सूर्य देव ने शनि को समझाया कि स्वर्णा तुम्हारी माता तो नहीं है परंतु मां के समान है। इसलिए उसका श्राप व्यर्थ तो नहीं होगा, परंतु यह उतना कठोर नहीं होगा कि टांग पूरी तरह से अलग हो जाये। हां, तुम आजीवन एक पांव से लंगड़ाकर चलते रहोगे। तभी से शनि देव की चाल टेढ़ी और धीमी कही जाती है।
दूसरी कथा:-
रावण की पत्नी मंदोदरी जब गर्भवती हुई तो रावण ने अपराजय व दीर्घायु पुत्र की कामना से सभी ग्रहों को अपनी इच्छानुसार स्थापित कर लिया। सभी ग्रह भविष्य में होने वाली घटनाओं को लेकर चिंतित थे लेकिन रावण के भय से वहीं ठहरे रहे।
जब रावण पुत्र मेघनाद का जन्म होने वाला था तो उसी समय शनिदेव ने स्थान परिवर्तन कर लिया जिसके कारण मेघनाद की दीर्घायु, अल्पायु में परिवर्तित हो गई।
शनि की बदली हुई स्थिति को देखकर रावण अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसने शनि के पैर में अपनी गदा से प्रहार किया जिसके कारण शनि देव लंगडे़ हो गये। लंगड़ाकर चलने के कारण शनिदेव की चाल धीमी कही जाती है।
पुराणों में यह कहा गया है कि शनि देव लंगड़ाकर चलते हैं जिस कारण उनकी गति धीमी है। उन्हें एक राशि को पार करने में लगभग ढा़ई वर्ष का समय लगता है।
शनिदेव को तेल क्यों चढ़ाया जाता है?
रामायण में लिखा है कि जब भगवान राम की सेना ने सागर सेतु बांध लिया था, तब राक्षस उन्हें हानि न पंहुचा सकें, उसके लिये पवनसुत हनुमान को उसकी देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी गई।
जब हनुमान जी शाम के समय राम के ध्यान में मग्न थे, तभी सूर्य पुत्र शनि ने अपना काला कुरुप चेहरा बनाकर क्रोधपूर्ण कहा- हे वानर, मैं देवताओं में शक्तिशाली शनि हूं। सुना है तुम बहुत बलशाली हो। आंखें खोलो और मेरे साथ युद्ध करो।
इस पर हनुमान जी ने विनम्रता से कहा- इस समय मैं अपने प्रभु को याद कर रहा हूं। आप मेरी पूजा में विघ्न मत डालिये। जब शनि देव लड़ने पर उतर ही आये तो हनुमान जी ने उन्हें अपनी पूंछ में लपेटना शुरु कर दिया।
शनि देव उस बंधन से मुक्त न होकर पीड़ा से व्याकुल होने लगे। शनि के घमंड को तोड़ने के लिये हनुमान ने पत्थरों पर पूंछ को पटकना शुरु कर दिया जिससे शनि देव लहुलुहान हो गये।
तब शनि देव ने दया की प्रार्थना की जिस पर हनुमान जी ने कहा- मैं तुम्हें तभी छोडू़गा जब तुम मुझे वचन दोगे कि श्री राम के भक्त को कभी परेशान नहीं करोगे। शनि ने गिड़गिड़ाकर कहा- मैं वचन देता हूं कि कभी भूलकर भी आपके और श्रीराम के भक्तों की राशि पर नहीं आऊंगा।
तब हनुमान जी ने शनि को छोड़ दिया और उसके घावों पर लगाने के लिये जो तेल दिया तो उससे शनिदेव की सारी पीड़ा मिट गई। उसी दिन से शनि देव को तेल चढ़ाया जाता है जिससे उनकी पीड़ा शांत होती है और वे प्रसन्न हो जाते हैं।
शनिदेव की दृष्टि क्रूर क्यों मानी जाती है?
ब्रह्मपुराण में कहा गया है- बचपन से ही शनि देव भगवान कृष्ण के परम भक्त थे। वयस्क होने पर उनके पिता ने चित्ररथ की कन्या से उनका विवाह कर दिया।
एक रात उनकी पत्नी ऋतु स्नान करके पुत्र प्राप्ति की इच्छा से उनके पास पंहुची तो शनि देव भगवान कृष्ण के ध्यान में मग्न थे। पत्नी प्रतीक्षा करके थक गई। उसका ऋतुकाल निष्फल हो गया। तब उसने क्रुद्ध होकर शनि देव को श्राप दे दिया कि आज से जिसे तुम देख लोगे, वह नष्ट हो जायेगा।
ध्यान टूटने पर शनि देव ने अपनी पत्नी को मनाया लेकिन श्राप के प्रतिकार की शक्ति उसमें न थी। तभी से शनि देव की दृष्टि को क्रूर माना जाने लगा और वे अपना सिर नीचा करके रहने लगे। क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनकी दृष्टि के द्वारा किसी का अनावश्यक अनिष्ट हो।
शनिदेव को न्यायाधीश क्यों कहा जाता है?
शनि देव अच्छे कर्मो के फलदाता है व बुरे कर्मों का दंड भी देते हैं जिस कारण से उन्हे न्यायधीश कहा जाता है। देवी लक्ष्मी के पूछने पर शनि देव ने उन्हें बताया था कि परमपिता परमात्मा ने ही मुझे तीनो लोकों का न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है।
शनि देव क्रूर ग्रह नहीं हैं, वे न्यायकर्ता हैं। व्यक्ति जब पाप करता है, वह लोभ, हवस, गुस्सा, मोह से प्रभावित होकर अन्याय, अत्याचार, दुराचार, अनाचार, पापाचार, व्याभिचार का सहारा लेता है तो शनि देव उस व्यक्ति के जीवन में साढे़साती लाकर उसके पापों का हिसाब स्वयं कर देते हैं।
शनि के बुरे प्रभाव से गुर्दा रोग, डायबिटीज, मानसिक रोग, त्वचा रोग, वात रोग व कैंसर हो सकते है। जिनसे राहत के लिये शनि की वस्तुओं का दान करना चाहिये।
शास्त्रों में यह आख्यान मिलता है कि शनि के प्रकोप से अपने राज्य को घोर दुर्भिक्ष से बचाने के लिये राजा दशरथ उनसे मुकाबला करने पंहुचे तो उनका पुरुषार्थ देखकर शनिदेव ने उनसे वरदान मांगने को कहा।
राजा दशरथ ने विधिवत स्तुति कर स्वरचित स्तोत्र से उन्हें प्रसन्न किया तो शनि देव ने उन्हें वरदान दिया कि चतुर्थ व अष्टम ढैया होने पर ‘दशरथ स्तोत्र’ पढ़कर मेरे द्वारा दिये जाने वाले कष्टों से रक्षा की जा सकती है।
शनिदेव का सिद्ध मंदिर
द्वापरयुग में बंसी बजाते हुये एक पैर पर खडे़ हुये भगवान श्रीकृष्ण ने शनि देव की पूजा-अर्चना से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिये और कहा कि नंदगांव से सटा ‘कोकिला वन’ उनका वन है।जो इस वन की परिक्रमा करेगा और शनिदेव की पूजा करेगा, वह मेरी व शनिदेव दोनों की कृपा प्राप्त करेगा। इस कारण से कोकिलावन के शनिदेव मंदिर को सिद्ध मंदिर का दर्जा प्राप्त है।
शनिदेव को मिला भगवान शंकर का आशीर्वाद
स्कन्द पुराण में वृतांत है कि एक बार शनिदेव ने अपने पिता सूर्यदेव से कहा कि मैं ऐसा पद प्राप्त करना चाहता हूं जो आज तक किसी ने प्राप्त न किया हो, मेरी शक्ति आप से सात गुणा अधिक हो, मेरे वेग का सामना कोई देव-दानव-साधक आदि न कर पायें और मुझे मेरे आराध्य श्रीकृष्ण के दर्शन हों।
शनि देव की यह अभिलाषा सुन सूर्यदेव गदगद हुये और कहा कि मैं भी यही चाहता हूं कि मेरा पुत्र मुझसे भी अधिक महान हो, परंतु इसके लिये तुम्हें तप करना पडे़गा और तप करने के लिये तुम काशी चले जाओ। वहां भगवान शंकर का घनघोर तप करो और शिवलिंग की स्थापना कर भगवान शंकर से अपने मनवांछित फलों का आशीर्वाद लो।
शनि देव ने अपनी पिता की आज्ञानुसार वैसा ही किया और तप करने के बाद शिवलिंग की स्थापना की, जो वर्तमान में भी वहाँ मौजूद है।
इस प्रकार काशी विश्वनाथ मंदिर के स्थल पर शनिदेव को भगवान शंकर से आशीर्वाद के रुप में सर्वोपरि पद मिला।
Conclusion :
जीवन के अच्छे समय में भी शनिदेव का गुणगान करो। पीड़ादायक समय में शनिदेव के दर्शन, पूजा व दान करो। शनिदेव पर विश्वास रखो।
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