एक औरत के उदगार – मेरी कलम से
कभी तो यारों उसका दिल भी, टटोल कर के देखो।
दिल में ज़ब्त जज्बातों को, कभी खोल कर तो देखो।।
अपने बच्चों के अरमानों को, जो पंख लगाती है।
उन्हीं में अपने सपनों को, विलीन कर देती है।।
कभी तो यारों उसका दिल भी…..
बच्चों की खातिर पति से, वह रोज बातें सुनती।
बच्चों के गुस्से का भी, शिकार वही है बनती।।
कभी तो यारों उसका दिल भी…..
स्वजनों के ज़ख्म पर भी, मरहम वही लगाती।
पर खुद के जख्मों को कभी, जाहिर न होने देती।।
कभी तो यारों उसका दिल भी…..
पति की परेशानियों में, मनोबल बढ़ाती है जो।
खुद अपनी परेशानियों से, नज़रें चुराती है वो।।
कभी तो यारों उसका दिल भी…..
वो उस वख्त भी रोती थी जब, बच्चा खाता नही था खाना।
वो आज भी रोती है, जब वही बच्चा देता नही है खाना।।
कभी तो यारों उसका दिल भी…..
अपनों के हर कष्ट में, उसकी रहती है भागीदारी।
पर कोई न पास होता, जब आती है उसकी बारी।।
कभी तो यारों उसका दिल भी…..
तन्हाइयों से करती है, जब भी वो मुलाकातें।
आँसू ही बोल देते हैं, जुबां की सारी बातें।।
कभी तो यारों उसका दिल भी…..
स्वजनों को ‘तृप्ति‘ देकर, अभिभूत होती है जो।
पर चाहतों से खुद के, अनभिज्ञ रहती है वो।।
कभी तो यारों उसका दिल भी, टटोल कर के देखो।
उसके बंद जज्बातों को, कभी खोल कर तो देखो।।
– तृप्ति श्रीवास्तव
यह भी पढ़ें :
बहुत सुंदर लिखा है
Thank you🙏